Indian Institute of Public Administration |भारतीय लोक प्रशासन संस्थान

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Indian Institute of Public Administration |भारतीय लोक प्रशासन संस्थान


भारतीय लोक प्रशासन 

 भारतीय लोक प्रशासन के विकास की लम्वी यात्रा में जहां अनेक साम्राज्य बने और बिगड़े वहां इसकी दो विशेषताएं निरन्तर कायम रहीं। ये विशेषताएं हैं, प्रथम, प्रशासनिक संगठन की संरचना में प्रारम्भिक इकाई के रूप में ग्राम का महत्व, और द्वितीय, प्रशासनिक संगठन में केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों का सामजस्य। आज भी उक्त दोनों विशेषताएं भारतीय लोक प्रशासन में कायम हैं।

ऐतिहासिक कालक्रम की दृष्टि से भारतीय लोक प्रशासन के विकास को सुविधा की दृष्टि से निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है :

Indian Institute of Public Administration
 भारतीय लोक प्रशासन 


1. प्राचीनकालीन प्रशासन, 

2. राजपूतकालीन प्रशासन, 

3. सल्तनतकालीन प्रशासन, 

4. मुगलकालीन प्रशासन, 

• INDIAN HISTORY

                                                1. प्राचीनकालीन प्रशासन

                                (ADMINISTRATION IN THE ANCIENT TIME)

सिन्धु घाटी सभ्यता काल प्रशासन-सिन्धु घाटी सभ्यता काल प्रशासन (2250 ई. पूर्व से 1750 ई. पूर्व तक) का केवल अनुमान लगाया जा सकता है। लिखित साक्ष्यों के अभाव में सिन्धु सभ्यताकालीन राजनीतिक एवं प्रशासनिक स्थिति का निर्धारण करना अत्यन्त कठिन है। ह्रीलर तथा पिगट का अभिमत है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा साम्राज्य अच्छे ढंग से शासित साम्राज्य थे। 

सिन्धु घाटी की सभ्यता में सुनियोजित सड़कों तथा नालियों की व्यवस्था थी। इससे यह प्रतीत होता है कि नगरों में नगरपालिकाएं  थीं, जो नगरों की समुचित व्यवस्था करती थीं। पिगट के अनुसार योजनाबद्ध निर्माण कार्य को देखते हुए अनुमान किया जाता है कि नगरों में ‘नगरपालिका’ जैसी कोई संस्था अवश्य रही होगी सिन्धु घाटी सभ्यता के सम्पूर्ण क्षेत्र में एक ही प्रकार के भवनों का निर्माण होता था, 

एक ही प्रकार की मूर्तियां बनायी जाती थीं, एक ही माप-तौल प्रचलित थी, एक ही लिपि का प्रचलन था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सम्पूर्ण सिन्धु प्रदेश एक ही विशाल साम्राज्य में संगठित था। इस प्रदेश में एक संगठन, एक व्यवस्था तथा एक शासन की सत्ता थी।

   हण्टर का विचार है कि यहां शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक नहीं वरन् लोकतन्त्रात्मक थी जबकि मैके के अनुसार मोहनजोदड़ो में एक प्रतिनिधि शासक प्रशासन करता था। ह्रीलर का विचार है कि मोहनजोदड़ो की शासन व्यवस्था धर्मगुरुओं और पुरोहितों के हाथों में केन्द्रित थी जो जनप्रतिनिधियों के रूप में प्रशासनिक कार्य करते थे।

ऋवैदिक काल-ऋग्वैदिककालीन राजनीतिक व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई ‘कुटुम्ब’ थी। परिवार का सबसे अधिक आयु वाला पुरुष कुटुम्ब का प्रधान होता था। कुटुम्च के समस्त सदस्यों द्वारा ‘प्रधान’ की आज्ञा मानना परम आवश्यक था। अनेक कुटुम्बों के समूह को ‘ग्राम’ कहा जाता था ‘ग्राम’ का एक अधिकारी होता था 

जिसे ‘ग्रामणी’ कहते थे। ग्रामणी का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण होता था क्योंकि वह ‘ग्राम’ का एकमात्र प्रशासनिक अधिकारी होता था अनेक ग्रामों के समूह को ‘विश’ कहते थे, जिसके अधिकारी को ‘विशपति’ कहा जाता था। 

अनेक ‘विश’ मिलकर ‘जन’ की रचना करते थे। जन के प्रधान अधिकारी को ‘गोप’ कहते थे गोप प्रायः ‘राजा’ ही हुआ करते थे गोप का तत्कालीन प्रशासनिक व्यवस्था में अत्यधिक महत्वपूर्ण पद था।

ऋग्वैदिक काल में शासन व्यवस्था प्रमुखतया राजतन्त्रात्मक (Monarchial ) थी, जिसका अध्यक्ष ‘राजा’ होता था। ऋग्वेद में गणों (Republics) का भी उल्लेख है, किन्तु राजतन्त्रों की ही संख्या अधिक थी। राजा निरंकुश न थे तथा राज्याभिषेक के समय प्रजा के हित में ही कार्य करने की उन्हें शपथ लेनी पड़ती थी। 

राजा का पद वंशानुगत था राजा का सबसे पवित्र एवं सम्माननीय कार्य शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करना था। 

ऋग्वैदिक राज्य अत्यन्त छोटे-छोटे थे। अतः कुछ ही कर्मचारियों से प्रशासन कार्य चल- जाता था। इन अधिकारियों में ‘पुरोहित’ एवं ‘सेनानी’ का अत्यन्त महत्व था । ऋग्वैदिककालीन राजाओं की स्वेच्छाचारिता पर प्रतिवन्ध लगाने वाली दो संस्थाएं-सभा एवं समिति थीं। 

लुडविग के अनुसार ‘समिति’ जनसाधारण की संस्था थी तथा ‘सभा’ होमरकालीन गुरुजन सभा के समान संस्था थी, जिसमें गिने -चुने लोग ही होते थे तथा राजा के साथ विचार-विमर्श कर सकते थे ऋग्वेद में कानून के लिए ‘धर्मन्’ शब्द का प्रयोग मिलता है। न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी राजा ही होता था । उसकी सहायतार्थ पुरोहित होता था। 

उत्तर-वैदिक काल-ऋग्वैदिक युग के पश्चातू के काल को उत्तर-वैदिक युग कहते हैं। इस युग की प्रमुख विशेषता शक्तिशाली राजाओं का उदय होना था। इस युग में यद्यपि राजा का पद पैतृक होता था, परन्तु कभी-कभी उसका निर्वाचन भी किया जाता था। 

उत्तर-वैदिक काल में, ऋग्वैदिक युग की अपेक्षा राजा की सहायतार्थ प्रशासनिक पदाधिकारियों की संख्या में वृद्धि हुई। राज्यों के बढ़ते हुए परिमाण को देखते हुए ऐसा होना स्वाभाविक ही था। प्रशासनिक व्यवस्था की सुविधा के लिए राज्य में अनेक विभागों की रचना की गयी थी 

जिनमें प्रमुख वित्त विभाग, निरीक्षण विभाग, आरक्षण एवं सेना विभाग, स्थानीय शासन विभाग थे राजा मन्त्रियों की सहायता से प्रशासन करता था। मन्त्री का पद परम्परा एवं जनमत पर आधारित था इन मन्त्रियों को उत्तर-वैदिक काल में ‘रलिन’ कहते थे राजा की स्वेच्छाचारिता एवं निरंकुशता पर प्रतिबन्ध लगाने वाली संस्थाएं ‘सभा’ एवं ‘समिति’ थीं। 

उत्तर-वैदिक काल में राज्यों की सीमाएं विस्तृत हो जाने के कारण इन संस्थाओं का प्रभाव ऋग्वैदिक काल की तुलना में कुछ कम हो गया था। न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था तथा उसकी सहायतार्थ अन्य अधिकारी भी होते थे। 

न्यायाधीश को ‘स्थपति’ कहाजाता था। गांव में छोटे-छोटे अपराधों का ‘ग्राम्थवादिन’ नामक अधिकारी निर्णय करता था।

महाकाव्य काल-वैदिक काल की तुलना में राज्यों के स्वरूप में महाकाव्य काल तक महत्वपूर्ण परिवर्तन हो चुका था । वैदिकयुगीन छोटे-छोटे राज्यों के स्थान पर विशाल साम्राज्यों की स्थापना हो चुकी थी, जिनके शासकों को ‘सम्राट’ कहा जाता था। महाकाव्य काल में कुछ गणतन्त्रों का अस्तित्व भी था, परन्तु राजतन्त्र ही विद्यमान थे ।

राज्य का सर्वोच्च अधिकारी ‘राजा’ होता था। राजा प्रायः निरंकुश होने का प्रयास नहीं करते थे तथा लोक-कल्याण के कार्य व प्रजा की रक्षा करना उनके प्रमुख कर्तव्य थे । सम्राट को प्रशासन में सहायता देने के लिए दो संस्थाएं क्रमशः मन्त्रिपरिषद् व सभा होती थी। 

मन्त्रिपरिषद् में लगभग 37 मन्त्री होते थे जो प्रत्येक वर्ण से चुने जाते थे सभा में 18 सदस्य होते थे जो विभिन्न विभागों के अध्यक्ष होते थे प्रशासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण साम्राज्य को विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया गया था सबसे छोटी इकाई ग्राम थी जिसके ऊपर दशग्राम, विशतिग्राम, शतग्राम, सहस्रग्राम तथा राज्य थे। 

इन इकाइयों के अधिकारियों को क्रमशः ग्रामिक, विंशतिय, शतग्रामी, अधिपति व राजा कहते थे। इन पदाधिकारियों का कर्तव्य लगान वसूल करना, अपराधियों को दण्डित करना व अपने क्षेत्र में शान्ति वनाए रखना था। आय का प्रमुख साधन प्रजा से वसूल किए जाने वाले कर थे।

बौद्धकालीन राज्य तथा प्रशासनिक चिन्तन-बौद्ध साहित्य में महात्मा बुद्ध के आविर्भाव से पूर्व एवं उनके समय में महाजनपदों के अस्तित्व का पता चलता है। महात्मा बुद्ध के समय अनेक गणतन्त्रात्मक राज्य थे; जैसे-शाक्य, कोलिय, मौर्य, मल्ल, बुलि, लिच्छवि, विदेह, भग्ग, आदि। 

इन गणतन्त्रों के अतिरिक्त चार राजतन्त्र भी थे जो साम्राज्य विस्तार की भावना से प्रेरित होकर निरन्तर अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए संघर्षरत थे ये राजतन्त्र थे मगध, अवन्ति, वत्स और कौशल।

बौद्ध साहित्य में वीद्धकालीन गणतन्त्रों का वर्णन है। बौद्ध ग्रन्थों में बौद्ध संघों की प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था का विस्तृत विवरण है। वीद्धकालीन गणराज्यों में प्रशासन की वास्तविक शक्ति सभा में निहित होती थी |

गौतम बुद्ध से जब पूछा गया कि गणराज्य की सफलता के लिए किन गुणों की आवश्यकता है अथवा कोई गणराज्य क्यों सफल होता है तो उन्होंने इसके लिए उत्तरदायी सात कारणों का उल्लेख किया-

(1) जल्दी-जल्दी सभाएं करना तथा उनमें मताधिकार प्राप्त व्यक्तियों का अधिक-से-अधिक भाग लेना; 

(2) राज्य के कार्यों को एकमत होकर सहयोगपूर्वक संचालित करना; 

(3) कानून का कभी उल्लंघन न करना तथा समाज-विरोधी कानूनों की रचना न करना; 

(4) वृद्ध व्यक्तियों के विचारों को महत्व देना तथा उनका पर्याप्त सम्मान करना; 

(5) कन्या ओं एवं स्त्रियों के साथ बलात्कार न करना: 

(6) अपने धर्म में दृढ़ विश्वास रखना;

(7) कर्तव्य-परायण रहना। तत्कालीन बज्जियों के गणराज्य में ये सभी गुण पाए जाते थे।

कुछ भी हो बुद्ध के युग में राज्यों पर वंशगत राजा नहीं वल्कि गणसभाओं के प्रति उत्तरदायी व्यक्ति शासन करते थे। अतः प्राचीन गणराज्यों में रहने वाले लोगों का राजनीतिक सत्ता में बरावरी का हिस्सा भले न रहा हो परन्तु भारत में गणतन्त्र कीपरम्परा उतनी ही पुरानी है जितना बुद्ध का युग।

मौर्य शासन अथवा कौटिल्य कालीन प्रशासन-मौर्य काल में भारत ने पहली बार राजनीतिक एकता प्राप्त की तथा एक विशाल साम्राज्य पर मौर्य शासकों ने शासन किया। इस विशाल साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रकाश डालने वाले अनेक ऐतिहासिक ख्रोत उपलब्ध हैं 

जिनसे ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य न केवल एक महान् विजेता वरन् एक योग्य प्रशासक भी था। कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’, मैगस्थनीज की ‘इण्डिका’, अशोक के शिलालेख व अनेक यूनानी रचनाओं से मौर्य शासन प्रणाली के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। 

चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु, मित्र व प्रधानमन्त्री चाणक्य की सहायता से जिस शासन प्रणाली को प्रारम्भ किया, उल्लेखनीय है कि लगभग दो हजार वर्षों के उपरान्त अंग्रेजों ने भी लगभग उसी शासन प्रणाली को भारत में प्रतिस्थापित किया।

मौर्य साम्राज्य का स्वरूप राजतन्त्रात्मक था, अंतः शासन का प्रधान राजा होता था। राजतन्त्रात्मक शासन प्रणाली में राजा का योग्य होना अत्यन्त आवश्यक है। इसी कारण कौटिल्य ने इस बात को अत्यधिक महत्व दिया है। ‘अर्थशास्त्र’ में उसने लिखा है, “राजा का जो शील होता है वही प्रजा का भी होता है। यदि राजा परिश्रमी और उन्नतिशील हो तो प्रजा भी उन्नतिशील हो

                                   2. राजपूतकालीन प्रशासन

        (ADMINISTRATION IN THE RAJPUT ERA)


राजपूत काल में राजा शासन का सर्वेसर्वा होता था राजा का पद वंश परम्परागत होता था कानून, न्याय और शासन तीनों ही दृष्टि से राजा श्रेष्ठ होता था राजा को परामर्श देने के लिए एक मन्त्रिमण्डल होता था मन्त्री अपने-अपने विभागों का प्रवन्ध करते थे। प्रत्येक राज्य में एक पुरोहित भी होता था, 

जिसका पद मन्त्री के समान होता था। अनेक उच्च श्रेणी के अधिकारी भी होते थे। यथा, प्रतिहार, सेनाधिपति, आक्षपाठलिक, भिषक, नैमित्तिक और कृत। ये सब अधिकारी राजधानी में रहते थे और राजा के साथ इनका सीधा सम्बन्ध था। 

राज्य प्रान्तों में विभक्त होता था प्रायः युवराज या राजघराने के व्यक्तियों को ही प्रान्त में शासक बनाया जाता था। प्रान्त विभागों में विभक्त होता था। प्रत्येक विभाग का एक अधिकारी होता था तथा उसके अधीन बहुत-से कर्मचारी होते थे विभाग का अधिकारी मालगुजारी एकत्र करने, न्याय करने और शान्ति व्यवस्था बनाए रखने का कार्य करता था । कोतवाल जैसा एक पुलिस अधिकारी प्रत्येक विभाग या जिले में रहता था। 

ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी। ग्राम का प्रबन्ध ग्राम सभाओं के हाथ में था प्रत्येक ग्राम की एक सभा होती थी जो अपने क्षेत्र में शासन का सब कार्य संभालती थी। स्थान और काल-भेद से ग्राम सभाओं के संगठन भिन्न-भिन्न थे। ग्राम सभा के अधिवेशन की अध्यक्षता ग्रामणी नामक कर्मचारी करता था शासन की सुविधा हेतु अनेक समितियों का निर्माण किया जाता था तथा उन्हें विविध प्रकार के कार्य सौंपे जाते थे |

ग्राम के क्षेत्र के झगड़े निपटाना, बाजार का प्रबन्ध करना, कर वसूल करना, जलाशयों, खेतों, चरागाहों, आदि की देखभाल करना, मार्गों को ठीक हालत में रखना, आदि कार्य ग्राम सभाओं के कार्यक्षेत्र में दिए हुए थे। शत्रुओं और डाकुओं से गांव की रक्षा करना ग्राम संस्थाओं का कार्य था । 

ग्राम संस्था ग्राम क्षेत्र से राज्य के लिए वसूल किए जाने वाले करों को एकत्र करने के लिए भी उत्तरदायी थी। नगर का प्रबन्ध करने के लिए पट्टनाधिकारी नामक अधिकारी होता था। यह अधिकारी वे सभी कार्य करता था, जो आजकल नगरपालिका के कार्यपालिका अधिकारी करते हैं।

भारतीय लोक प्रशासन
भारतीय प्रशासन 


3. सल्तनतकालीन प्रशासन

(ADMINISTRATION IN THE SULTANATE PERIOD)

सल्तनत काल का प्रशासन मूलतः सैनिक प्रशासन था। दिल्ली के सुल्तान निरंकुश स्वेच्छाचारी शासक थे दिल्ली के सुल्तानों को अपने शासन के प्रारम्भ से ही अधिकारियों की एक व्यवस्थित श्रृंखलायुक्त व्यवस्था करनी पड़ी।

सल्तनत में सुल्तान का पद सबसे अधिक महत्वपूर्ण था और सब राजनीतिक, कानूनी और सैनिक अधिकार उसे प्राप्त थे। वह राज्य की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी था। इसी प्रकार वह प्रशासन के लिए भी उत्तरदायी था 

              4. मुगलकालीन प्रशासन

(ADMINISTRATION IN THE MUGHAL PERIOD)

भारतीय शासन की बागडोर मुगल सम्राटों के हाथ में आने के बाद उन्होंने अपनी सुविधा, प्रज्ञा और आकांक्षाओं के अनुरूप प्रशासनिक व्यवस्था में भी अनेक परिवर्तन किए। विशेष रूप से अकबर (1556-1605), जहांगीर (1605-1627) तथा शाहजहां (1627-1658) ने अपने काल में अनेक नवीन परिवर्तन किए। 

इन सवमें सम्राट अकबर में विलक्षण एवं उच्च प्रशासनिक क्षमता थी जिसका उसने अनेक नवीन प्रशासनिक कदमों की शुरुआत अथवा असामयिक परम्पराओं का अन्त करके परिचय भी दिया। 

मुगल काल में प्रशासनिक क्षेत्र में सत्ता के केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति वढ़ी जिसमें शासक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न एवं शक्ति का एकमात्र पुंज अथवा स्रोत हो गया। प्रशासन की समस्त गतिविधियों पर वही नियन्त्रण करता था तथा इस हेतु वह अपने कर्मचारियों पर सावधानीपूर्वक निगरानी भी रखता था।

अकबर द्वारा विकसित प्रशासनिक तथा कर व्यवस्था जहांगीर तथा शाहजहां ने मामूली परिवर्तनों के साथ कायम रखी, लेकिन मनसवदारी व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए । मुगलों द्वारा विकसित मनसबदारी व्यवस्था ऐसी थी जिसका भारत के वाहर कोई उदाहरण नहीं मिलता। 

वर्तमान प्रमाण के आधार पर ऐसा लेगता है कि मनसबदारी व्यवस्था का आरम्भ अकबर ने अपने शासनकाल के उन्नीसवें वर्ष (1574) में किया था। 

मनसबदारी व्यवस्था का उद्देश्य था कि राज्य के अधिकारियों में एक क्रमानुसार पद व्यवस्था कर दी जावे और अधिकारियों को उनके पद के अनुसार ‘मनसब’ देकर उन्हें राज्य की सेवा के लिए तैयार किया जावे। 

अबुल फजल के अनुसार, “सम्राट ने मनसवदारों को मनसबं दहबवाशी (10 के नायक) से दस हजारी (10,000 का सेनापति) तक निर्धारित कर दिये। लेकिन 5,000 से ऊपर के मंनसब अपने श्रेष्ठ पुत्रों के लिए सीमित कर दिये।“ उसने साथ-ही-साथ कर प्रशासन का भी सुधार किया और जात तथा सवार की व्यवस्था भी आरम्भ की। 

जात की पदवी किसी व्यक्ति की हैसियत की सूचक थी तथा उसका वेतन भी इसी आधार पर निश्चित होता था। दस से लेकर दस हजार तक के मनसब के लिए 66 वर्ग थे, यद्यपि पांच हजार से अधिक की पदवी राजकुमारों को दी जाती थी।

विरुद्ध विद्रोह न कर दें। इसी कारण से उसने सत्ता का विकेन्द्रीकरण भी नहीं किया। शासन व्यवस्था के समस्त कार्य वह स्वयं देखता था तथा मन्त्रियों पर निर्भर नहीं रहता था। इन्हीं कारणों से वह अपने शासन में असफल रहा।

मुगलों की प्रशासनिक व्यवस्था में कर्मचारियों की भर्ती के निश्चित नियम न होते हुए भी उनकी लोक सेवा कुशल थी।

मुगलकालीन प्रशासन का गठन नौकरशाही की पदसोपानबद्ध पद्धति के अनुसार ही था।

मुगलकालीन प्रशासन के संगठन को निम्नलिखित तीन स्तरों पर विस्तार से समझा जा सकता है :

1. मुगल साम्राज्य में केन्द्रीय शासन,

2. मुगल राज्य में प्रान्तीय शासन तथा 

3. मुगल राज्य में स्थानीय शासन।

INDIAN HISTORY

• मुगल साम्राज्य में केन्द्रीय शासन

(i)बादशाह-मुगल सम्राट असीम शक्ति सम्पन्न एवं राज्य का सर्वेसर्वा था। शासन कार्य की समस्त शक्तियां सम्राट में केन्द्रीभूत थी। साम्राज्य का प्रधान होने के साथ-साथ सेना का प्रधान सेनापति, न्याय का मुख्य न्यायाधीश तथा धार्मिक क्षेत्र का प्रधान था।

(ii) मन्त्रिपरिषद्-साम्राज्य की शासन व्यवस्था में मदद के लिए एक मन्त्रिपरिषद् की स्थापना की गयी थी सभी मन्त्रियों की नियुक्ति सम्राट द्वारा होती थी। इसकी सलाह मानने के लिए सम्राट वाध्य नहीं था। मन्त्रिपरिषद् के विभाग इस प्रकार थे-

(1) वजीर,

(2) दीवान-ए-आला, 

(3) मीर वख्शी, 

(4) खान-ए-समां, 

(5) सदर-ए-सुदूर, 

(6) मुहातसिव, 

(7) मीर आतिश, 

(8 ) काजी- 

(9) दरोगा-ए-डाक-चीकी।

साम्राज्य में सम्राट के बाद ऊंचा पद प्रधानमन्त्री या वजीर का होता था उसके बाद ‘दीवान’ का पद होता था जो राजकोष विभाग का अध्यक्ष होता था। सैन्य विभाग का अध्यक्ष ‘मीर बख्शी’ कहलाता था घरेलू विभाग का प्रधान ‘खान-ए-समां कहलाता था। सदर-ए-सुदूर के पास दान विभाग, न्याय विभाग तथा शिक्षा विभाग थे। 

मुहातसिव के अधीन सार्वजनिक आचरण के परीक्षण करने वाला विभाग था। तोपखाने विभाग का अध्यक्ष ‘मीर आतिश’ कहलाता था। काजी-उल कुजात’ का प्रधान कार्य न्याय की समुचित व्यवस्था करना था। डाक विभाग का अध्यक्ष दरीगा-ए-डाक-चीकी कहलाता था।

इन मन्त्रियों के अतिरिक्त केन्द्र में कुछ अन्य अधिकारी भी होते थे। जैसे-मीर वहर (यह नौ सेना अधिकारी होता था), मीर बार (यह बन अधीक्षक होता था) तथा दरोगा-ए-टकसाल (जो टकसाल का प्रबन्ध करता था)।

• मुगल राज्य में प्रान्तीय शासन

सम्राट अकबर से पूर्व मुगल साम्राज्य में प्रान्तीय प्रशासन की व्यवस्था नहीं थी। अकबर पहला मुगल सम्राट था जिसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। अतः इस विशाल साम्राज्य का एक केन्द्र से शासन करना सम्भव नहीं था। 

आइने-अकबरी के अनुसार अपने शासन के 24वें वर्ष में अकबर ने अपने शासन को 12 प्रान्तों में विभाजित किया व प्रत्येक प्रान्त में कुछ आवश्यक अधिकारियों की नियुक्ति की गई। इन प्रान्तों के प्रशासन की रूपरेखा भी वैसी ही थी जैसे कि केन्द्र की थी। प्रान्तीय शासन में निम्नलिखित प्रमुख अधिकारी होते थे :

(1)सूबेदार-प्रान्तीय शासन का प्रधान सूवेदार कहलाता था उसकी नियुक्ति एवं पदच्युति करना सम्राट की इच्छा पर निर्भर था। उसे सम्राट के आदेशानुसार ही कार्य करना पड़ता था। 

सूवेदार का प्रमुख कार्य प्रान्त में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना करना, शाही आज्ञा ओं का पालन करवाना, आदि था वह प्रान्तीय सेना का प्रधान सेनापति होता था। न्यायाधीश के रूप में अपने प्रान्त में उसे प्रारम्भिक और अपीलीय दोनों ही अधिकार थे ।

(2)दीवान-सूवेदार के बाद प्रान्त का दूसरा अधिकारी ‘दीवान’ होता था। दीवान की नियुक्ति भी सम्राट द्वारा होती थी। प्रान्तों में दीवान पद के लिए उपयुक्त व्यक्ति का चुनाव केन्द्रीय दीवान करता था और उसकी प्रान्तीय दीवान के पद पर नियुक्ति सम्राट के ‘हुस्ुलहुक्म’ के द्वारा होती थी। 

वह सूवेदार के कार्यों में सहयोग प्रदान करता था। प्रान्त की गतिविधियों की सम्पूर्ण सूचना कन्द्र को भेजना भी उसी का कार्य था।

(3) सदर—दान विभाग का प्रधान होता था तथा उसकी नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा होती थी।

(4) आमिल-आमिल का प्रमुख कार्य मालगुज़ारी वसूल करना होता था।

(5) बख्शी-इसका प्रमुख कार्य कृषि योग्य भूमि एवं ऊसर भूमि का वार्षिक आय-व्यय का विवरण सरकार को भेजना था।

(6) पोतदार-पोतदार उस अधिकारी को कहा जाता था जो कृषकों से राजस्व वसूल करके राजकोष को सुरक्षित रखे।

(7) फौजदार—फीजदार की नियुक्ति प्रान्त का सूवेदार करता था। प्रत्येक प्रान्त में कई फौजदार होते थे इनका प्रमुख कार्य बिद्रोहों का दमन करके प्रान्त में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाए रखना तथा सूवेदार को प्रशासनिक कार्यों में मदद करना था।


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